घटना पाँच महीने पहले की ही है। दो साल के नन्हे केशव (परिवर्तित नाम) को बेडावल के अमृत क्लिनिक में लाया गया (जो सबसे नज़दीकी तहसील सलूम्बर से 25 किमी और उदयपुर से तक़रीबन 100 किमी दूर है)। केशव को गंभीर निमोनिया था और उसे फ़ौरन देखभाल की ज़रूरत थी। क्लिनिक की युवा नर्स शाइस्ता ने उसे बचाने की हर चन्द कोशिश की। उसने तुरंत ज़रूरी दवाएं शुरू कीं, उसे ऑक्सीजन दिया, उसके माता-पिता को सलाह और तसल्ली दी। तब बच्चे को किसी बड़े अस्पताल में रेफर करने की तैयारी में जुट गई। पर केशव के माता-पिता की सोच फ़र्क थी। अंग्रेज़ी दवाओं और इलाज में उनका भरोसा नहीं था। उन्होंने शाइस्ता की एक न सुनी और वे बच्चे को घर ले गए, जहाँ कुछ समय बाद उसकी मौत हो गई।
जब शाइस्ता को यह ख़बर मिली वह बिलख-बिलख कर रोयी। आज भी इस घटना की याद उसकी नींद उड़ा देती है। पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ी शाइस्ता को वह समय याद है, जब बचपन में बीमार पड़ने पर उसे या उसके भाई-बहनों को अस्पताल नहीं ले जाया जाता था। यह बात उसे बेहद तकलीफ़ देती है कि हमारे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से की सच्चाई आज भी यही है।
अमृत क्लिनिक में शाइस्ता और उसकी टीम इस स्थिति को बदलने में जी-जान से जुटी है। दक्षिणी राजस्थान के दूर-दराज़ बसे उस इलाके में वे सब चौबीसों घंटे अपनी सेवाएं देने को तत्पर हैं, जहाँ चिकित्सा सेवाएं लगभग नदारद ही हैं। दरअसल अमृत क्लिनिकों की ताकत शाइस्ता जैसी नर्सें ही हैं। वे न केवल बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैय्या करवाती हैं, बल्की शक के उस नज़रिए से भी लगातार निपटती हैं, जिससे स्थानीय लोग स्वास्थ्य सेवाओं को देखते हैं।
चौबीस वर्षीय शाइस्ता, झाड़ोल ब्लॉक की फलासिया पंचायत से है, जो ज़िले के सबसे दूरस्थ इलाकों में एक है। जिस समाज में किशोरियों से यह उम्मीद रखी जाती है कि अठारह बरस की होते ही उन्हें शादी कर लेनी चाहिए, शाइस्ता और उसकी बहन खुशनूर (उम्र तेईस वर्ष) ने एक अलग ही तरह का सपना देखा। नर्स बनने का सपना। ग्रामीण झाड़ोल के एक निहायत रूढ़िवादी परिवार में पली-बढ़ी शाइस्ता ने जब एक पेशेवर स्त्री बनना चाहा, तो एकबारगी खुद को निहायत अकेला महसूस किया। पर शाइस्ता खुशकिस्मत थी, उसे अपनी बहन और माँ में दोस्त, हमराज़ और भरोसेमन्द साथी मिल सके।
जब शाइस्ता ने खुद को परेशानियों से घिरा पाया, उसकी हिम्मत टूटने के कगार पर आ गई और खुद पर से उसका भरोसा पूरी तरह डगमगा गया। ऐसे में उसकी बहन और उसकी माँ ने मज़बूती से उसका साथ दिया। समाज और परिवार की आलोचना से बेख़ौफ़ माँ ने ढ़ाल बन, अपनी बेटियों की शिक्षा की पैरवी की। वे हर कदम पर दावा करती रहीं कि उनकी बेटियाँ बेटों से बेहतर सिद्ध होंगी।
‘‘मुझे याद है कि अम्मी किस तरह हमारे रिश्तेदारों से भिड़ जाती थीं…वे हमेशा हमारे पक्ष में खड़ी होती थीं। अब हालत यह है कि काम करना मेरे लिए साँस लेने से भी ज़्यादा ज़रूरी है। अगर मैं काम करना बन्द कर दूँ तो लगेगा कि मैं ज़िन्दा ही नहीं हूँ।’’ |
बेसिक हैल्थ सर्विस (बीएचएस) से शाइस्ता नवम्बर 2021 में जुड़ीं। यहाँ पिछले डेढ़ सालों के अनुभव ने शाइस्ता की ज़िन्दगी ही बदल डाली है। ‘‘जब मैं अमृत से जुड़ी मेरा वज़न 45-46 किलो हुआ करता था, अब मेरा वज़न सुधरा है। हीमोग्लोबीन का स्तर 7-8 से बढ़ कर 12-13 हो गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि मेरा आत्म–विश्वास बढ़ा है,’’ यह सब बताते समय शाइस्ता का चेहरा खुशी से दमकता है।
ज़िन्दगी की सीखों को अपने काम से जोड़ते हुए शाइस्ता एनीमिया, यानी खून की कमी के बारे में लोगों को जागरूक कर रही हैं। ‘‘मैं सबसे कहती हूँ कि जो घर में आसानी से उपलब्ध हो वही खाओ। यह ज़रूरी नहीं कि हम महंगी चीज़ें खाएं, बस वह खाएं जिसमें लोहा हो। मैं आसानी से मिलने वाली हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ (बथुआ, पालक) और गुड़–चने का उदाहरण देती हूँ। कई औरतें मेरा सुझाव मान इसे अमल में लाने लगी हैं। पर अभी भी बहुत काम करना बाकी है।’’
हिचकिचाहट और झिझक से भरी एक किशोरी से आत्मविश्वास से लबरेज़ एक नर्स बनने के इस लम्बे सफ़र को शाइस्ता ने बहुत ही कम समय में तय कर लिया है। उसकी दिली चाहत है कि तमाम दूसरी लड़कियाँ भी उस तरह से काम कर सकें, जैसे वह कर पा रही है।
‘‘यह पेशा हमें अपने खुद के और दूसरों के शरीर की समझ देता है। जब हम खुद को ठीक से जान–समझ लेते हैं, तब ही दूसरों की मदद भी कर सकते हैं,’’ शाइस्ता कहती हैं। |
शाइस्ता के इस रूप के पीछे, दुनिया की नज़रों से ओझल कई स्त्रियाँ हैं, जिन पर उसे पूरा भरोसा है, जो उसकी मददगार रही हैं, जिन्होंने मज़बूती से उसका साथ दिया है – शाइस्ता की माँ, उसकी बहन, पुष्पा दीदी (एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिन्हें शाइस्ता स्नेह से याद करती है)। इन स्त्रियों ने शाइस्ता के अद्भुत बदलाव में अहम् भूमिका निभाई है। शाइस्ता और उस जैसी सफल औरतों के पीछे नहीं, बल्की उनके साथ खड़ी इन स्त्रियों को सलाम!
हमारी बातचीत ख़त्म होते ही शाइस्ता अपने काम में जुट जाती है। हिरणी-सी फ़ुर्ती से वह क्लिनिक के एक से दूसरे छोर तक काम संभालने लगी है। हमारे आग्रह पर कुछ फोटो खिंचवाने के लिए वह काम को फिर कुछ देर मुल्तवी करती है। शाइस्ता और उसके साथ काम करने वाली नर्सें एक परिवार की तरह हिलमिल कर रहती हैं। व्यस्त दिनों में वे 60 से भी अधिक मरीज़ों की देखभाल करती हैं, इसमें प्रसव और देर रात की आपातकालीन स्थितियाँ भी शामिल है। यह सब आसान नहीं, उतना ही कठिन है जितना अरावली को चुनौती देना।
अपनी छोटी-सी उम्र में भी शाइस्ता हमें सिखा रही है कि ज़िन्दगी को बिना बोझ समझे किस तरह हल्केपन, उदारता, हंसी-खुशी और दोस्ताना तरीके़ से जिया जा सकता है।
– दृष्टि अग्रवाल
23 मार्च 2003
(हिन्दी रुपान्तरण- पूर्वा कुश्वाहा)