समता, समानुभूति और समभाव हासिल करने की जद्दोजहद

जब हम पहले-पहल किसी काम से जुड़ते हैं, तो वह हमें क्या सिखाता है?

समय का प्रबंधन? पैसों का मोल? या दूसरों से जुड़ना, उन्हें साथ जोड़ने का हुनर?

पर हमारी किला के पहले औपचारिक काम का पहला पाठ था समता का। दूसरों के बराबर होने के अहसास का। इस अहसास ने अपनी अंदरूनी बेड़ियों को तोड़ने में किला की मदद की। उसे एक व्यक्ति होने की, दूसरों के बराबर होने की अब तक अनचीन्ही पहचान दी।

‘‘बचपन में माँ स्कूल छोड़ने आती थी, लेकिल मैं बाहर ही बैठी रहती थी। अन्दर जाती ही नहीं थी। मुझे बहुत डर लगता था। यह डर अभी कुछ ही समय पहले खत्म हुआ है। यहाँ (अमृत क्लिनिक में) आने के बाद। अब लगता है सब बराबर हैं, किसीसे भी, कुछ भी पूछ सकते हैं,’’ किला कहती है। किला उदयपुर ज़िले में सलूम्बर से 30 किलोमीटर दूर घाटेड स्थित अमृत क्लिनिक में नर्स हैं।

अमृत क्लिनिक में एएनएम के रूप में जुड़ने के पहले किला गुजरात में निर्माण और कपड़ा उद्योग में देहाड़ी मज़दूरी कर चुकी हैं। असंगठित क्षेत्र में आने वाले ये काम कड़ी मशक्कत वाले होने के साथ तमाम चुनौतियों, अनिश्चितता व असुरक्षा से घिरे होते हैं।

यह विडम्बना ही है कि एएनएम का प्रशिक्षण लेने के बाद भी किला ने खुद को गुजरात में देहाड़ी मज़दूरी करते पाया। पिता की मृत्यु के कुछ समय बाद (तब वह महज दस वर्ष की थी) किला अपनी माँ और भई-बहनों के साथ काम की तलाश में अहमदाबाद पहुँची थी। किला का परिवार मूलतः बाँसवाड़ा के अनन्तपुरी क्षेत्र से है। वहाँ की 80 प्रतिशत आबादी ग़रीबी और भूख से बेबस हो काम की तलाश में गुजरात पहुँचती है। 

पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली ग़रीबी के इस दुष्चक्र से निकल पाने का मौका किला को तब मिला जब उसे एएनएम के लिए चुन लिया गया। 2014 में प्रशिक्षण तो पूरा हो गया पर ढंग का काम न मिल सका। घर के खर्चों में हाथ बंटाना ज़रूरी था। सो किला ने एक धागा मिल में छह महीने काम किया। किला ने बताया,

‘‘हमारी पारी आठ घंटों की होती थी। हमें उस दौरान मिल की घुटन भरी गरमी में लगातार खड़े रहना पड़ता था। शौचालय जाने तक का समय न मिल पाता था। दिन भर की मशक्कत की मजदूरी थी 280 रूपये। पर उसमें से हमेशा किसी न किसी बहाने पैसे काट लिए जाते थे।’’

घाटेड़ में किला का दिन सुबह साढ़े छह बजे शुरू होता है। वह क्लिनिक परिसर में ही रहती है। सुबह के निजी कामों से फ़ारिग हो, अपने साथ काम करने वाली दो नर्सों के साथ किला क्लिनिक का काम शुरू करती है। वे ज़िम्मेदारियों को मिल-बाँट कर निभाती हैं। इनमें क्लिनिक में आए स्त्री-पुरुषों से बातचीत करना, उनकी बीमारी-तकलीफ़ की जानकारी लेना, उनका वज़न, रक्तचाप, तापमान आदि जाँचना, रोग की पहचान करना, क्लिनिक के रिकॉर्ड में मरीज़ों की सूचनाएं दर्ज करना, दवाएं देना, उन्हें कैसे और कब लेना है बताना-समझाना आदि शामिल हैं। ‘‘गुरुवार को हम सरकारी एएनएम के साथ क्लिनिक के इलाके में चल रही आँगनवाड़ियों में जाते हैं। वहाँ हम गर्भवती स्त्रियों की प्रसवपूर्व और नई माताओं की प्रसव के बाद की देखभाल करते हैं। उन्हें पोषण और साफ़-सफ़ाई के महत्व के बारे में बताते-समझाते हैं।’’

दिन भर में अपनी टीम के साथ क़रीब 80 मरीज़ों को देख चुकने के बाद भी किला की ऊर्जा में कोई कमी नज़र नहीं आती। वह अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी ईमानदारी और समभाव से निभाती है। बेडावल की नर्स पुष्पा दीदी, किला की आदर्श हैं। ‘‘वे हमें सब कुछ बड़ी सहजता से समझाती हैं। उन्हें प्रसव के बारे में बहुत अनुभव और जानकारी है। मैं ठीक उनकी जैसी बनना चाहती हूँ,’’ यह कहते समय किला की आँखों में एक चमक कौंध जाती है।

बराबरी में अपने विश्वास के चलते किला अपने वैवाहिक जीवन में भी इसे उतारना चाहती है। जिस समाज में औरतों का काम तक करना मुश्किल है, वहाँ विवाहित कामकाजी औरतों की स्थिति और भी कठिन बन उठती है। किला की कोशिशों और रिश्तों को निभाने की कला ने शादी के बाद काम जारी रख पाने की राह तैयार की है। काश किला के पति व परिवार जैसे और भी परिवार होते!

किला साधारण होते हुए भी असाधारण की मिसाल बन उभरी है। जिस तरह वह अपना जीवन जी रही है वह कतई साधारण लग सकता है। उसकी जद्दोजहद बचे रहने की है, बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर पाने की है।

पर वह असाधारण भी है। इस नज़र से असाधारण कि वह समाज में ऊँचे दर्जे पर पहुँचने की डींग नहीं हाँकती। वह यह दावा नहीं करती कि वह अपने परिवार को ग़रीबी के दुष्चक्र से उबार लाई है। वह यह बखूबी समझती है कि यह स्थिति कभी भी बदल सकती सकती है। कोई भी आर्थिक-शारीरिक विपदा उसके जैसे परिवारों को कभी भी, फिर से नीचे धकेल सकती है।

किला की दिखने वाली हंसी-खुशी के नीचे क्या उदासी की झलक भी है? शायद हो। इसलिए क्योंकि वह भूली नहीं है कि देहाड़ी मज़दूर की हालत क्या होती है। तब क्या महसूस होता है जब अपने श्रम के साथ व्यक्ति को अपना सम्मान बेचने पर भी मजबूर होना पड़ता है। और तो और इसके बावजूद खास कीमत तक नहीं मिलती। पर विडंबना यह है कि उस कीमत के बिना आपका गुज़ारा नहीं चल ही सकता। हो सकता है यह द्वन्द केवल किला का सच न हो, अनेक औरतों का सच हो। अपने बेहद व्यस्त पर खास दिलों में वे ना जाने क्या-क्या छिपाए रखती हैं।

बातचीत के दौरान किला कई बार थमती है, चुप हो जाती है। खासकर अपने बचपन के बारे में बताते हुए। न केवल उसकी आवाज़ धीमी होती है, बल्की वह खुद में सिमट मानो कुछ छोटी हो जाती हैै। पर जब वह क्लिनिक में अपनी मेज़ पर बैठ मरीज़ों को देखती है, उनके रोग का निदान करती है, उन्हें दवाएं देती है वह आत्म-विश्वास से लबरेज़ होती है। उस वक्त उसके ज़ेहन में सिर्फ़ उन मरीज़ों के प्रति ज़िम्मेदारी का अहसास होता है जो क्लिनिक में आए होते हैं।

किला की ही तरह शायद हम सबको भी ऐसे कार्यस्थल की दरकार है जो हमें हमारे अंदरूनी डरों पर काबू पाने की ताकत दें, हमारी मदद कर सकें। शायद हमें किला से यह सीखना चाहिए कि हमारे वातावरण और जीवन ने हमें जो पाठ पढाए हैं उन्हें हम कैसे आत्मसात करें, उन्हें अपना लें। जीवन के वास्तविक मूल्यों को पहचानना, उन्हें सीखना ही असल में सीखना है।  

दृष्टि अग्रवाल

हिंदी अनुवाद- पूर्वा कुशवाहा

मार्च २७, २०२३